Friday 28 December 2012

Real Happiness





The man who comes to know that the house in which he lives is charged , both above and bellow as well as on all the four sides , dynamite that can explode any house even for a second ? will his attachment for that house continue any longer ? Similarly when a man comes to know that a strong dose of arsenic has been mixed with the dish served to him ,will be care to eat it ? Will he not feel inclined to leave it at  once  ? In the same way , when one gets  convinced without doubt through discretion , a critical sense of what is good and what is bad , that the enjoyments of this world are all evanescent , burning with the flames of sorrow and destrurctive in the end like poison , will he ever remain attached to them any longer ? Realize this fact with a discerning mind and reckoning all worldly enjoyments as destructive like poison remain unattached  to them ..

Thursday 20 December 2012

' स्याम जी की पैंजनियां '






झुनकि स्याम  की  पैंजनियाँ ।
जसुमति  सुत कौं चलन सिखावति अंगुरी गहि गहि दोउ जनियाँ ॥
स्याम बदन पर पीत झंगुलिया , सीस कुलहिया चौतनियां ।
जाकौ ब्रम्हा पार न पावत , ताहि खिलवाति ग्वालिनियां ॥
दूरि न जाहु निकट ही खेलौ , मैं बलिहारी रेंगिनियाँ ।
सूरदास जसुमति बलिहारी , सुतहि  खिलावति लै कनियाँ ॥



Sunday 16 December 2012

True purpose of our bilongings .



Every gift of god to us is intended for being used to the best advantage . Hence make the most of every  possession and every  situation of ours and make capital out of it . when death overtakes us , not a moment's extension will allowed if asked for . So , every single moment of our like to the best advantage . Devote every breath of ours to some blessed pursuit . The best use of time is to perform every duty in a spirit of worship or service to god , shedding slot and error and remaining engaged in  his blissful remembrance . To fritter away one's time in reading harmful and useless books , in seeing cinema pictures , playing at cards and taking part in other such games , and including in excessive sleep and idle gossips and so on is to misuse it . To devot one's time to sinful pursuits is not only to misuse it but to antagonize and court self ruination .

Friday 14 December 2012

प्रभु की प्राप्ति कैसे हो ?




निष्काम भाव से प्राणी मात्र की सेवा करना ही वास्तविक भजन है । यही सच्चा धर्म है । ऐसी निष्काम सेवा से प्रभु प्रेम  की प्राप्ति अवश्य होती है । जिस धर्म मे दूसरों को दुःख देने , दूसरों की हिंसा करने की बात काही गयी है , वह वास्तव मे धर्म है ही नहीं । दूसरों को सुख शांति देने से ही हमे भी सुख शांति ही मिलती है । दूसरों को दुःखी करने से हमे भी दुःख ही मिलता है इसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं है । हो सके तो मदद करने की अभिलाषा रखो परंतु वापस पाने की अभिलाषा मत रखो । कभी किसी को दुःखी देख कर खुश नहीं होना चाहिए अन्यथा प्रभु रुष्ट हो जाते है और लाख प्रयत्न करने पर भी मनाया नहीं जा सकता है , और वे खुश होने वाले को भी वही दुःख का कारण दे देते है - कहा भी गया है कि " जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । "प्राणी मात्र का भला हो , सभी सुखी हो ,किसी को कोई दुःख न हो ऐसी भावना नित्य प्रति बार बार करनी चाहिए । ऐसी भावना से हमारे समस्त विकार नष्ट होते है , तिरस्कार और द्वेष शांत होते है तथा सुसंस्कार मन मे बैठ जाते है । हम जैसी भावना करें वैसा ही आचरण भी करें । जिसके विचार , आचरण और वाणी मे एकता है उसे भय , दुःख , चिंता और क्रोध होते ही नहीं है । इसलिए जो प्राणी मात्र का हित चाहता है  , किसी का भी सुख देख कर जिसके अंतःकरन मे प्रसन्नता होती है , दुःखी देख कर जिसका अंतःकरण द्रवित हो उठता है और वह अपनी समर्थ अनुसार भेदभाव रहित होकर सहायता करता है किन्तु बदले मे स्वयं कामना रहित रहता है ऐसे व्यक्तियों से सभी प्रेम करते है ।
जो आचरण हमे अच्छा न लगे वह हमे दूसरों से नहीं करना चाहिए । निष्काम भावना से जो परोपकार करता है वह सदैव सुखी रहता है । भगवान ने अवसर दिया है तो, जागो ,उठो और सेवा मे जुट जाओ फिर ऐसा अवसर बार बार नहीं आयेगा ।

Thursday 13 December 2012

गीता - समस्त योगों का सार !

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान्हमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरीक्ष्वाकवेब्रवीत ॥
       
                             (श्री मद्भगवत् गीता - चतुर्थ अद्ध्याय )


श्री कृष्ण भगवान बोले कि -" हे ! अर्जुन मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि मे   सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु के प्रति कहा था । 
सत्य न तो नया है - न पुराना । जो नया है , वह पुराना हो जाता है , जो पुराना है वह कभी नया था । जो नए से पुराना होता है  वह जन्म से मृत्यु कि ओर जाता है । सत्य का न कोई जन्म है न कोई मृत्यु । इसलिए सत्य न तो नया है न पुराना । सत्य सनातन है । कृष्ण ने इस सूत्र मे बहुत थोड़ी सी बात मे बहुत बड़ी बात कही है । एक तो उन्होने यह कहा कि जो मैं तुमसे कह रहा हूँ वही मैंने कल्प मे सूर्य से भी कहा ।
जिस दिन कृष्ण कहते है कि मैंने सूर्य से कहा उस दिन भी सत्य जहां था आज भी वहीं है । जिस दिन सूर्य ने मनु से कहा तब भी सत्य जहां था आज भी वही है , जिस दिन मनु ने इक्ष्वाकु से कहा उस दिन भी सत्य जहां था आज भी वहीं है , और जिस दिन कृष्ण अर्जुन से कहते है तब भी सत्य जहां था आज भी वही है । आज भी सत्य वही है जहां था । कल न भी होंगे तब भी सत्य वहीं रहेगा जहां है । 
हम कहते है कि समय बीत रहा है लेकिन सच्चाई इसके उलट ही है समय नहीं बीतता है सिर्फ हम बीतते है , हम आते और जाते है , समय अपनी जगह है ।


 एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगा नष्टः परन्तपः ॥

- इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना । परंतु हे अर्जुन , वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी - लोक में लुप्तप्राय हो गया है ।

स एवायं मया ते अद्मम योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोसि मे सखा चेति रहस्यम ह्येतुत्तमम् ॥

-  वही पुरातन योग मैंने तेरे लिए वर्णन किया है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात मर्म का विषय है ।

जीवन रोज बदल जाता है । ऋतुओँ  की भांति जीवन परिवर्तन का एक क्रम है । गाड़ी के चाक  की  भांति घूमता चला जाता है लेकिन चक का घूमना भी एक न घूमने वाली कील पर टिका होता है । कील नही घूमती इसीलिए चाक घूम पाता है । अर्थात ये सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर करता है ।और वह अपरिवर्तित शक्ति है ईश्वर । ईश्वर हमेशा थे हमेशा ही रहेंगे , अनंत काल तक । चिर काल तक ।
         हरी ॐ ।

Monday 10 December 2012

उठ जाग रे मुसाफिर !





उठ जाग रे मुसाफिर !


दुनियाँ मे सार नहीं ,

दो दिन का ये तमाशा है ।

क्या राजा क्या रंक क्या रानी ,

पंडित अरु ,महंत औ ज्ञानी ।

ये संसार सारा है कहानी ,

कुछ भी है करार नहीं ,

दुनिया मे है सार नहीं ।

उठ जाग रे मुसाफिर !!



सूरज चंदा औ तारे ,

सागर सलिल करारे ।

एक दिन नहीं रहेंगे ,

बिलकुल भी आधार नही ।

दुनिया मे है सार नहीं ,

उठ जाग रे मुसाफिर !!


बन जा दुनिया से कुछ न्यारा ,

होगा तभी गुजारा ।

मानुष का तन ये पाई ,

काहे फिरत लगी लगाई ।

फिर मिलत  हार नहीं ,

दुनिया मे है सार नहीं ।

उठ जाग रे मुसाफिर !!

Sunday 9 December 2012

नूतन ( बच्चों का कोना ): बालकों के माली से

नूतन ( बच्चों का कोना ): बालकों के माली से:                                         ये  नन्हें  नन्हें  फूल     ,   भरी   इनमे   सुगंध   मतवाली ।          इनको     न  बनाना  ध...

सब जग मंगता इक्को ही देवनहार

              
   
         हे प्रभु ! मेरी ये मनोकामना पूरी कर दो मै एक सौ एक रुपये का प्रसाद चढाऊँगा , हे प्रभु मेरी बेटी की शादी करवा दो चाँदी का छत्र चढ़ाएँगे , बच्चे पूरे साल पढ़ाई नहीं करेंगे लेकिन परीक्षा के समय मंदिर की घंटी बजाने जरूर जाएंगे हे प्रभु! , लड़के की नौकरी लगवानी हो - हे प्रभु! , घर वर चाहिए – हे प्रभु! , बीमारी दूर भगानी हो - हे प्रभु! , कुछ भी चाहिए – हे प्रभु! , अपनी सुविधानुसार हे प्रभु! । प्रभु जी क्या करें उनके सारे ही बच्चे हैं किसको क्या दें ?
  प्रभु जी अपने भक्त से कहते हैं - संसार की वस्तुएँ , संसार के सुख बड़े ही आकर्षक और चमकीले प्रतीत होते है क्या तुम्हें बस इतना ही चाहिए ?
 भक्त प्रभु जी से – जी हाँ प्रभु ! एक बड़ा घर हो , धन संपत्ति से भरा हो , परिवारी जनों का आना जाना लगा रहे , दुख कभी छू भी न पाये ।
प्रभु जी बोले – तथास्तु ! ( ऐसा ही हो )
एक दूसरे भक्त से प्रभु मिले । उससे पूछने पर वह भी यही बोला । इसी तरह तमाम भक्तों से प्रभु ने पूछा सभी ने लगभग एक जैसी वस्तुएं ही मांगी । किसी ने प्रभु की मित्रता , उनमे अनुराग बना रहे , या सुविचार बने रहें , सुप्रवृत्तियाँ बनी रहें , परम निवृत्ति इत्यादि इनमें से किसी ने कुछ भी नहीं मांगा । प्रभु ने सोचा चलो अच्छा है , सब तरफ माया फैला दी सब उस मृग मरीचिका मे ही अटक गए और अब तक अटके पड़े हुए है । छूटने का उपाय किसी ने सोचा ही नहीं न प्रभु से मांगा , प्रभु  ने दिया भी नहीं ।
जो देवनहार एक ही है तो उससे कुछ ऐसा मांगो कि जीवन ही सफल हो जाए । अपनी अपनी रुचि का प्रयोजन सबको अच्छा लगता है तर्क वितर्क की बात नहीं है अपने मन के आनंद की बात है ।
श्री मदभगवतगीता मे प्रभु ने कहा है कि – बहुत से जन्म के बाद एक जन्म ऐसा होता है जिसमे चतुर्विधि (अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी ) भजने वालों मे ज्ञानी भक्त सबमे व्यापक सर्वत्र वासुदेव को देख कर उनका भजन करता है , मै जो सर्वत्र व्याप्त हूँ , सबमें खेल रहा हूँ ,  ऐसे सब मे वासुदेव के दर्शन करने के भाव से जो ज्ञानी भक्त मुझको बहुत से जन्मों के बाद भजता है , वह दुर्लभ है । सबमे वासुदेव कृष्ण को देखने वाला भक्त दुर्लभ है ,अर्थात मनुष्य जन्म ही सुदुर्लभ है ।

Monday 3 December 2012

स्वामी विवेकनन्द जी के विचार





         




व्यक्ति को अध्यात्म का मर्म समझाने , गुण , कर्म और स्वभाव का विकास करने की शिक्षा देने , सन्मार्ग पर चलाने का ऋषियों द्वारा परिणीत मार्ग बताए गए है - धार्मिक कथाओं के कथन और श्रवण द्वारा सत्संग एवं पर्व विषयों पर   उद्देश्य पूर्ण मनोरंजन , त्योहार और व्रत उत्सव यही प्रयोजन पूरा करते है ।
 स्वामी विवेकानंद जी ने अपने संभाषण मे एक बार भारतीय संस्कृति की पर्व परंपरा की महत्ता बताते हुए कहा था - वर्ष मे प्रायः चालीस पर्व पड़ते है , युगधर्म के अनुरूप इनमे से दस का भी निर्वाह बन पड़े तो उत्तम है । उन प्रमुख दस पर्वों के नाम और उद्देश्य इस प्रकार है :-

1) दीपावली ;-  लक्ष्मी जी के उपार्जन और उपयोग मर्यादा का बोध । गोसंवर्धन के समूहिक प्रयत्न से अंधेरी रात को जगमगाने का उदाहरण । वर्षा के उपरांत समग्र सफाई का उद्देश्य ।

2) गीता जयंती :-  गीता के कर्मयोग का समारोह पूर्वक प्रचार , प्रसार ।

3) वसंत पंचमी :- सदैव उल्लासित , हल्की मनःस्थिति बनाए रखना , तथा साहित्य , संगीत एवं कला को सही दिशा देना ।

4) महाशिवरात्रि ;- शिव के प्रतीक जिन सत्प्र्व्रत्तियों की प्रेरणा का समावेश है , उनका रहस्य समझना , समझाना  ।

5) होली :-  नवान्न का सामूहिक वार्षिक यज्ञ , प्रहलाद कथा का स्मरण । सच्चाई का संवहन और बुराई का उन्मूलन ।  

6) गंगादशहरा :- भागीरथ के उच्च उद्देश्य एवं तप की सफलता से प्रेरणा ।

7) व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा):- स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था । गुरु तत्व की महत्ता और गुरु के प्रति श्रद्धाभावना की अभिवृद्धि ।

8)  रक्षाबंधन :- भाई की पवित्र दृष्टि - नारी रक्षा । पापों के प्रायश्चित हेतु हेमाद्री संकल्प । यज्ञोपवीत धारण ।


9)पितृविसर्जन ;- पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए  श्राद्ध तर्पण । 

10 ) विजयदशमी :- स्वास्थ्य , शस्त्र एवं शक्ति संगठन की आवश्यकता का स्मरण । असुरता पर देवत्व की विजय । 

इनके अतिरिक्त रामनवमी ,  श्री कृष्ण जन्माष्टमी, हनुमान जयंती , गणेश चतुर्थी ,क्षेत्रीय पर्व हैं , जिनमें कई तरह की शिक्षाएं और प्रेरणाएँ सन्निहित है ।