Wednesday 10 April 2013

महा शक्ति का आगमन

आप सबको नवरात्रि की हार्दिक बधाई ।

कल से आरंभ हो रहा है नवसंवतसर एवं नवरात्रि ,यानि कि सर्वार्थ  सिद्धि के लिए महा शक्ति पूजन।




1) नमो देवि विश्वेश्वरि प्राणनाथे
                          सदानन्दरुपे सुरानन्दे ते।
     नमो दानवान्त्प्रदे मानवानाम्-
                           अनेकार्थदे भक्तिगम्यस्वरुपे॥

अर्थात् :- हे विश्वेश्वरि ! हे प्राणो की स्वामिनी ! सदा आनन्द के रूप मे रहने वाली तथा देवताओं को आनन्द प्रदान करने वाली हे देवि!  आपको नमस्कार है। दानवों का अंत करने वाली, मनुष्यों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा भक्ति मार्ग से अपने स्वरूप का दर्शन देने वाली हे देवि ! आपको नमस्कार है ।


2) न ते नामसंख्यां न ते  रूपमीदृकत्था  
                                     को अपि वेदादिदेवस्वरुपे।
     त्वमेवासि सर्वेषु शक्तिस्वरूपा
                                      प्रजासृष्टिसंहारकाले सदैव॥
                                     
   अर्थात :- हे आदि देव स्वरूपिणी ! आपके नामों की निश्चित संख्या तथा आपके इस रूप को कोई नहीं  जान सकता। सब मे आप ही विद्यमान है । जीवों के सृजन और संहार काल  मे सदा शक्ति स्वरूप से आप ही  कार्य करती हैं । 




विशिष्टमायास्वरूपा , प्रज्ञामयी, परमेश्वरी, माया की अधिष्ठात्री, सच्चिदानंद स्वरूपिणी भगवती जगदंबा का ध्यान पूजन जाप तथा वंदन करना चाहिए । उससे वे भगवती प्राणी पर दया करके उसे मुक्त कर देती हैं और अपनी अनुभूति करा कर अपनी माया को हर लेती हैं । समस्त भुवन माया स्वरूप है तथा वे ईश्वरी उसकी नायिका हैं ।                                             
                                           जय  माता दी ।

Monday 18 March 2013

होली पर विशेष

रंगों का त्योहार होली 

बसंत पंचमी के आते ही प्रकृति मे नए परिवर्तन आने लगते है , पतझड़ आने लगता है , आम की मंजरियों पर भंवरे मंडराने लगते है ,  कहीं कहीं वृक्षों पर नए पत्ते भी दिखाई देने लगते है । प्रकृति मे नवीन मादकता का अनुभव होने लगता है । इसी प्रकार होली का पर्व आते ही  नई  रौनक , नए उत्साह और नई उमंग की लहर दिखाई देने लगती है ।

होली जहां एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है , वहीं रंगो का त्योहार भी है । हर उम्र हर वर्ग के लोग बड़े उल्लास से इस त्योहार को मनाते है । इसमे जाति वर्ण का कोई स्थान नहीं है । इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व भी कहा जाता है । खेत से नवीन अन्न को यज्ञ मे हवन करके प्रसाद पाने की परंपरा है ।

होली एक आन्नदोत्सव है ,इसमे सभी अपने पुराने गिले शिकवे
भूल कर एकदूसरे के गले लग जाते है ।  इसमे जहां एक ओर उत्साह व उमंग की  लहरें है वहीं कुछ बुराइयाँ भी आ गई हैं । कुछ लोग इस अवसर पर अबीर गुलाल के अलावा कीचड़ , मिट्टी , गोबर इत्यादि से जंगलियों की भांति खेलते है । हो सकता है  कि  उनके लिए ये खुशी संवर्धन का कारण हो किन्तु जो शिकार होता है  वही व्यक्ति इस पीड़ा को समझ पाता है। ऐसा करने से प्रेम   की  बढ़ोत्तरी होने के बजाय नफरत का इजाफा हो जाता है । इसलिए इन हरकतों से किसी के हृदय को चोट पंहुचाने के बजाय कोशिश ये होनी चाहिए कि प्रेम का अंकुर फूटे । 

होली सम्मिलन , मित्रता एवं एकता का पर्व है । इस दिन द्वेष भाव भूल कर सबसे प्रेम एवं भाई चारे से मिलना चाहिए , एकता सोल्लास एवं सद्भावना का परिचय देना चाहिए । यही इस पर्व का मूल उद्देश्य एवं संदेश है ।    

Wednesday 27 February 2013

Get rid our selves of all worires .

God is all-propitious and greatuious is his love , his mercy , is spontenaneous  and  ubiquitious ; he is all power full , all knowing , and eternlly undeluded. Whatever is ordiained for you is brought about by his all benign disintrested will; hence he will alone is ever and eternlly propitious for us .

contd......

Monday 25 February 2013

Be Happy

God , who is absolutely free from faults , is equally in all . All failings and foibles are extraneous , they do not form part of one's nature . If we are prone to perceive failings ,it will come to our view , and if we are inclined to see God , he will meet our eye . There is no objection to our dealing with others according to their external charecter, but do this for the sake of dealing alone . Bring home to our mind and itellect that god alone is manifest in those forms .

Even if any weakness appear to exist in any individual one cannot be sure that they really exist in him or her . May be they are conjured up by our censorious eye alone . And even if they do exist , never believe that they will endure for ever. That which is adventitious will as well depart .

.........contd .

Thursday 14 February 2013

बसंत पंचमी ( बसंतोत्सव एवं सरस्वती देवी का पूजन महोत्सव )

हमारी संस्कृति मे व्रत पर्व एवं उत्सवों की विशेष प्रतिष्ठा है । यहाँ कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन कोई न कोई व्रत या पर्व उत्सव न मनाया जाता हो । माघ  की शुक्ल पक्ष की पंचमी को  बसंत का आगमन होता है और इस दिन बसंत की पूजा नई आम की बौर , नई गेहूं की बाली , पीले फूल , आम के नए पत्तों द्वारा की जाती है । इसी दिन सरस्वती माता की आराधना की जाती है । भगवती सरस्वती विद्या , बुद्धि , ज्ञान और वाणी की अधिष्ठात्री देवी है तथा सर्वदा शास्त्र - ज्ञान को देने वाली है । उनका विगृह शुद्ध ज्ञान मय एवं आनन्द मय है । उनका तेज दिव्य एवं अपरिमेय है और वे ही शब्दब्रम्ह के रूप मे स्तुत होती है । सृष्टि काल मे ईश्वर की आद्याशक्ति ने अपने को पाँच भागों मे विभक्त कर लिया था । वे राधा , पद्मा , सावित्री , दुर्गा , और सरस्वती के रूप मे भगवान श्री कृष्ण के विभिन्न अंगों से प्रकट हुई थी । उस समय श्री कृष्ण के कंठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ ।

 इनके अनेक नाम है जिनमे से वाक ,वाणी , गीः , गिरा , भाषा , शारदा , वाचा , धीश्वरी , ब्राम्ही , गौ , सोमलता , वाग्देवी , और वाग्देवता आदि अधिक प्रसिद्ध है । भगवती सरस्वती की महिमा असीम है , ऋग्वेद के १० / १२५ सूक्त के आठवे मंत्र के अनुसार वाग्देवी सौम्य गुणों की दात्री तथा वसु रुद्रादित्यादी सभी देवताओं की रक्षिका है । वे  राष्ट्रिय  भावना प्रदान करती है तथा लोकहित के लिए संघर्ष करती है । श्रष्टि निर्माण वाग्देवी का कार्य है ।
बसन्त पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है । अतः इसको श्री पंचमी भी कहते है , सरस्वती की उत्पत्ति तत्त्व गुण से हुई है इसलिए इनकी पूजा मे प्रयुक्त होने वाली अधिकांश वस्तुएँ श्वेत वर्ण की होती हैं ।

इसलिए बसंत पंचमी पर बसंत के आगमन और सरस्वती पूजा का महोत्सव मनाते है ।

Tuesday 5 February 2013

कुम्भ महा पर्व



इन दिनों तीर्थ राज प्रयाग मे कुम्भ महा पर्व चल रहा है असंख्य श्रद्धालु भक्त जन , संत महात्मा सभी पुण्य की लालसा मे इलाहाबाद संगम के किनारे स्नान हेतु पहुँचकर लाभान्वित हो रहें है । आइए जाने कुम्भ और इससे संबन्धित कुछ अनछुए पहलू ।
“धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा” – इस श्रुत वचन के अनुसार धर्म ही सम्पूर्ण जगत का आधार है । धर्म के आधार पर ही समस्त मानव समाज प्रतिष्ठित है । धर्म ने ही मानव समाज को एक सूत्र मे बांध रखा है ।
कुम्भ महा पर्व एक महत्वपूर्ण और सार्वभौम महापर्व माना जाता है , जिसमे विराट  मेले का आयोजन होता है । कुम्भ मेला भारत का सबसे बड़ा मेला है , केवल भारत मे ही नहीं अपितु विश्व मे शायद ऐसे विराट  मेले का आयोजन कहीं नहीं होता होगा । यही इसकी विशेषता है ।
कुम्भ का अर्थ है घट या घड़ा और इसका दूसरा अर्थ विश्वब्रम्हान्ड भी है । जहां पर विश्व भर के धर्म, जाति, भाषा तथा संस्कृति आदि का एकत्र समावेश हो वही कुम्भ मेला है । कुम्भ मेला का प्रारम्भ कब से हुआ है इसका ठीक ठीक निर्णय करना कठिन है । परंतु कुम्भ महा पर्व के विषय मे पुराणों मे एक प्रसंग आया हुआ है , जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि कुम्भ मेले का प्रारम्भ बहुत प्राचीन काल मे ही हो चुका था । आज केवल उसकी आवृत्ति मात्र होती है ।
प्रसंग इस प्रकार है कि एक समय भगवान विष्णु के निर्देशानुसार देवों तथा असुरों ने मिलकर संयुक्त रूप से समुद्र मंथन किया था । जब देवों तथा दैत्यों ने मिलकर मंदराचल पर्वत को मंथन दंड और वासुकि को नेती – मंथन रज्जु बनाकर समुद्र मंथन किया तब समुद्र से चौदह रत्न निकले थे । जो इस प्रकार हैं – 1) ऐरावत 2) कल्प वृक्ष 3)कौस्तुभ मणि 4) उच्चैःश्रवा घोडा 5) चंद्रमा 6) धनुष 7)  काम धेनु 8) रंभा 9) लक्ष्मी 10) वारुणी 11) विष 12) शंख 13) धन्वतरि 14) अमृत ।
धन्वन्तरी अमृत कलश लेकर निकले ही थे कि देवों के संकेत से देवराज इंद्र के के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर वहाँ से भाग निकले । दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत कलश छीनने के लिए जयंत का पीछा किया । जयंत और अमृत कलश की रक्षा के लिए दौड़ पड़े । आकाश मार्ग मे ही दैत्यों ने जयंत को जाकर घेर लिया । तब तक देवता गण भी जयंत की रक्षा के लिए पहुँच चुके थे । फिर क्या था देवों और दैत्यों मे युद्ध ठन गया और बारह दिन तक युद्ध चलता रहा । दोनों दलों के संघर्ष काल मे पृथ्वी पर चार स्थानों पर अमृत कलश से अमृत छलक कर गिर गया । उस समय सूर्य आदि देवता जयंत तथा अमृत कलश की रक्षा के लिए सहायता कर रहे थे । देवों तथा असुरों के संघर्ष  को शांत करने के लिए मोहिनी रूप धारण कर प्रकट हुए तो युद्ध तत्काल थम गया और दोनों पक्षों ने यही निश्चय किया कि अमृत के वितरण का काम इन्ही को सौंप दिया जाय । तब मोहिनी रूप भगवान विष्णु ने दैत्यों को अमृत का भाग न देकर देवों को दे दिया इसलिए देव गण अमर हो गए । अमृत प्राप्ति के लिए बारह दिनों तक देवों तथा दैत्यों मे युद्ध हुआ था , देवों के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के बराबर होते है । इस कारण कुम्भ मेला भी बारह वर्ष के बाद एक स्थान पर होता आया है , इसे पूर्ण कुम्भ के नाम से जानते है । जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थी वे चार स्थान है -: हरिद्वार , नासिक , प्रयाग राज , उज्जैन । इसीलिए इन चार स्थानो पर बारह वर्षों के बाद मेला लगता है , जो लगभग ढाई महीने तक चलता है । इसे पूर्ण कुम्भ के नाम से जाना जाता है । हरिद्वार तथा प्रयाग मे छ्ह सालों के बाद अर्द्ध कुम्भ का मेला भी आयोजित होता है । हरिद्वार के अर्द्ध कुम्भ के समय नासिक का कुम्भ और प्रयाग के अर्द्ध कुम्भ के समय उज्जैन का कुम्भ पड़ता है ।
1) हरिद्वार का कुम्भ :- कुम्भ राशि पर बृहस्पति का और मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर हरिद्वार मे पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है ।  
2) प्रयाग का कुम्भ :-  वृष राशि पर बृहस्पति का योग होने पर प्रयागराज मे कुम्भ मेला आयोजित होता है ।
3) उज्जैन का कुम्भ :- सिंह राशि पर बृहस्पति का और मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर उज्जैन मे पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है। 
4) नासिक का कुम्भ :- वृश्चिक राशि पर सूर्य का योग होने पर नासिक मे पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है ।
कुम्भ मेलों का महातम्य बताते हुए यह कहा भी गया है :-
 " अश्वमेघसहस्त्राणी  बाजपेयशतानी च  
   लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नाने तत्फलम् ॥"
कुम्भ पर्व मे जाति , धर्म, संप्रदाय, भाषा , राज्य , संस्कृति , साहित्य , दर्शन , वेषभूषा , आदि सभी संदर्भों मे अनेकता मे एकता का दर्शन होता है । साधू संत , धनी मानी , विद्वान ,कर्मकांडी , योगी , ज्ञानी ,कथा वाचक , तत्त्वदर्शी , सिद्ध महापुरुष , सेठ साहूकार , भिखारी व्यापारी , गृहस्थ ,सन्यासी , ब्रम्ह्चारी, कल्पवासी , अधिकारी ,बूढ़े , जवान , आबालवृद्धवनिता सभी का स्वागत होता है। विभिन्न प्रकार का धार्मिक संगम इन मेलों मे देखने को मिलता है जो एक सहज आकर्षण है ।
आज भी बड़े समारोह के साथ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है , जो भारत वर्ष के उस प्राचीनतम महान गौरव को उजागर करता है ।

Monday 14 January 2013

मकर संक्रांति पर्व के विविध रूप




भारत मे समय समय पर हर पर्व को श्रद्धा , आस्था , हर्षोल्लास एवं उमंग के साथ मनाया जाता है । पर्व एवं त्योहार प्रत्येक देश की संस्कृति तथा सभ्यता को उजागर करते है । यहाँ पर पर्व त्योहार और उत्सव पृथक पृथक प्रदेशों मे पृथक पृथक ढंग से मनाए जाते हैं । मकर संक्रांति पर्व का हमारे देश मे विशेष महत्व है । इस संबंध मे श्री तुलसीदास जी ने लिखा है -

      माघ मकर गत रवि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥

ऐसा कहा जाता है कि गंगा यमुना और सरस्वती के संगम पर प्रयाग मे मकर संक्रांति के दिन सभी देवी देवता अपना रूप बदल कर स्नान के लिए आते है । अतएव वहाँ मकर संक्रांति के दिन स्नान करना अनंत पुण्यों को एक साथ प्राप्त करना माना जाता है। मकर संक्रांति का पर्व प्रायः प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है । खगोल शास्त्रियों के अनुसार इस दिन सूर्य अपनी कक्षाओं मे परिवर्तन कर दक्षिणायण से उत्तरायण होकर मकर राशि मे प्रवेश करते  है । जिस राशि मे सूर्य  की  कक्षा का परिवर्तन होता है , उसे संक्रांति कहा जाता है ।
मकर संक्रांति मे स्नान दान का विशेष महत्व है । हमारे धर्म ग्रन्थों मे स्नान को पुण्य जनक के साथ ही स्वस्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक माना गया है । मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण हो जाते है , गर्मी का मौसम आरंभ हो जाता है ।
उत्तर भारत मे गंगा यमुना के किनारे बसे गांवो तथा नगरों मे मेलों का आयोजन होता है । भारत मे सबसे प्रसिद्ध मेला बंगाल मे मकर संक्रांति पर्व पर " गंगासागर " मे लगता है । गंगासागर मेले के पीछे एक पौराणिक कथा है कि मकर संक्रांति को गंगा जी स्वर्ग से उतर कर भागीरथ के पीछे पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम मे जाकर सागर मे मिल गईं । गंगा जी पावन जल से ही राजा सगर के साथ हजार शाप ग्रस्त पुत्रों का उद्धार हुआ था । इसी घटना की स्मृति मे गंगासागर नाम से तीर्थ विख्यात हुआ , प्रतिवर्ष 14 जनवरी को मेले का आयोजन होता है , इसके अतिरिक्त दक्षिण बिहार के मदर क्षेत्र मे भी एक मेला लगता है ।
विभिन्न परम्पराओं और रीति रिवाजों के अनुरूप महाराष्ट्र मे ऐसा माना जाता है की मकर संक्रांति से सूर्य की गति तिल तिल कर बढ़ती है इसलिए इस दिन तिल के विभिन्न मिष्ठान्न बना कर एक दूसरे को वितरित करते हुये शुभकामनाए देकर यह त्योहार मनाया जाता है । गुजरात और महाराष्ट्र मे मकर संक्रांति पर अनेक प्रकार के खेलों का आयोजन किया जाता है ।
पंजाब और जम्मू कश्मीर मे यह त्योहार लोहड़ी नाम से मनाया जाता है । आसाम मे इसे बीहू नाम से मनाते है। तमिलनाडू मे यह त्योहार पोंगल नाम से मनाया जाता है । इसमे दाल, चावल , तिल की खिचड़ी बनाई जाती है । तमिल पंचांग का नया वर्ष पोंगल से ही शुरू होता है , इसे युगाधि भी कहते है ।
मकर संक्रांति से दिन बढ्ने लगता है और रात्री की अवधि कम होती जाती है । यह सभी जानते है कि सूर्य ऊर्जा का स्त्रोत्र है , इसके अधिक देर चमकने से प्राणि जगत मे चेतनता और उसकी कार्य शक्ति मे वृद्धि हो जाती है । इसीलिए हमारी संस्कृति मे मकर संक्रांति मनाने का विशेष महत्त्व है ।